history of prithviraj chauhan : बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार की नई फिल्म ‘पृथ्वीराज’ को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। प्रारंभ में, पृथ्वीराज नाम पर विवाद हुआ, करणी सेना की मांग थी कि फिल्म का नाम सम्राट पृथ्वीराज के नाम पर रखा जाना चाहिए, जिसे बाद में निर्माताओं ने स्वीकार कर लिया और हटा दिया गया। अब इस अंतिम हिंदू सम्राट पर गुर्जर और राजपूत दोनों समुदायों ने दावा किया है।
पृथ्वीराज चौहान का दावा है कि राजस्थान में गुर्जर और राजपूत दोनों ही उनके समुदाय के हैं। अखिल भारतीय वीर गुर्जर महासभा का कहना है कि पृथ्वीराज चौहान गुर्जर समुदाय से थे, इसलिए उन्हें भी फिल्म में दिखाया जाना चाहिए। इस विवाद के चलते अंतिम हिंदू सम्राट माने जाने वाले पृथ्वीराज चौहान एक बार फिर चर्चा में आ गए हैं। अक्षय कुमार अभिनीत पृथ्वीराज 3 जून को रिलीज होने वाली है। ऐसे में आइए समझते हैं कि वास्तव में पृथ्वीराज चौहान कौन थे? उन्हें अंतिम हिंदू सम्राट क्यों कहा जाता है? पृथ्वीराज चौहान गुर्जर थे या राजपूत?
क्या है गुर्जर समाज की मांग?
गुर्जर समुदाय का दावा है कि पृथ्वीराज चौहान राजपूत नहीं गुर्जर थे। पृथ्वीराज के गुर्जर होने के दावे को लेकर गुर्जर समुदाय कई तर्क दे रहा है। गुरमत नेता हिम्मत सिंह का कहना है कि पृथ्वीराज चांदबरदाई द्वारा लिखित ‘पृथ्वीराजरासो’ पर आधारित है और इसे पृथ्वीराज के टीज़र में दिखाया गया है।
हिम्मत सिंह का दावा है कि, इतिहास में उपलब्ध अभिलेखों के एक अध्ययन के आधार पर, शोधकर्ताओं का मानना है कि चांदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल के लगभग 400 साल बाद, 16 वीं शताब्दी में पृथ्वीराजरासो पाठ लिखा था, जो काल्पनिक है। चांदबरदाई को ब्रज भाषा का पहला कवि माना जाता है, जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के जीवन का वर्णन करते हुए महाकाव्य पृथ्वीराजसो लिखा था।
उनका कहना है कि पृथ्वीराजरासो पिंगल भाषा में लिखा गया है, जो ब्रज और राजस्थानी भाषा का मिश्रण है। उनका कहना है कि संस्कृत भाषा का प्रयोग गुर्जर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समय में होता था, न कि पृथ्वीराजरासो में पिंगल भाषा का।
अखिल भारतीय वीर गुर्जर महासभा के संरक्षक संत आचार्य वीरेंद्र विक्रम का दावा है कि कदवाहा और राजोर के शिलालेखों में तिलक मंजरी, सरस्वती कंथाभरन और पृथ्वीराज विजय के शिलालेख मिले हैं।उनका कहना है कि पृथ्वीराज का किला महाकाव्य पृथ्वीराज विजय के सर्ग 10 के श्लोक 50 में गुर्जर किला के रूप में लिखा गया है, जबकि गुर्जर ने सर्ग 11 के श्लोक 7 और 9 में गोरी को हराया था। इससे साबित होता है कि पृथ्वीराज चौहान गुर्जर समुदाय से थे।
क्या है राजपूत समाज का दावा?
पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ गुर्जर के दावे का राजपूत समुदाय ने कड़ा विरोध किया है। श्री राजपूत करनी सेना के राष्ट्रीय प्रवक्ता वीरेंद्र सिंह कल्याणवत का कहना है कि गुर्जर शुरू में ‘गौचर’ थे, जो बाद में गुर्जर और बाद में गुर्जर बने। वे मुख्य रूप से गुजरात से हैं और इसीलिए उन्हें यह नाम मिला।
गूजर शब्द गौचर शब्द से बना है और ये लोग सिंधु घाटी में रहते थे। साथ ही राजपूत शब्द राजपूताना से आया है, हम जाति से क्षत्रिय हैं।
कल्याणवत का कहना है कि पृथ्वीराज के वंशज अजमेर में रहते हैं। उनके पास अपने वंश का पूरा प्रमाण है। भारत में वंशावली खोजना मुश्किल नहीं है, क्योंकि गया, हरिद्वार और पुष्कर में पीढ़ियों से पुराने अभिलेख संरक्षित हैं। सरकार उन्हें वैध प्रविष्टियों के रूप में भी स्वीकार करती है।
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अध्यक्ष महेंद्र सिंह तंवर और इतिहासकार वीरेंद्र सिंह राठौर, जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान - ए लाइट ऑन मिस्ट पुस्तक लिखी, ने एक साक्षात्कार में गुर्जर के दावे का खंडन किया।
आखिरी हिंदू सम्राट क्यों?
इतनी प्रसिद्ध शख्सियत होने के बावजूद पृथ्वीराज चौहान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। इनके बारे में जानकारी कुछ समकालीन अभिलेखों में ही उपलब्ध है। पृथ्वीराज चौहान को राय पिथौरा के नाम से भी जाना जाता था। पृथ्वीराज चौहान (चहमान) परिवार का राजा था। उसने सपदलक्ष क्षेत्र पर शासन किया और उसकी राजधानी अजमेर थी।
पृथ्वीराज का जन्म 1166 ई. आई.एस. उन्होंने 1177 में सिंहासन प्राप्त किया, जबकि अभी भी एक नाबालिग है। पृथ्वीराज को विरासत में मिला राज्य उत्तर में थानेसर से लेकर दक्षिण में जहांजपुर (मेवाड़) तक फैला हुआ था। नतीजतन, उन्होंने एक विस्तारवादी नीति अपनाई। उसने पड़ोसी राज्यों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करके, खासकर चंदेलों को हराकर अपने राज्य का विस्तार भी किया।
पृथ्वी राजा ने आसपास के राजपूत राजवंशों के राजाओं को एकजुट किया और 1191 में तराइन की पहली लड़ाई में मोहम्मद गोरी को हराया। कहा जाता है कि मोहम्मद गोरी युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के बाद भाग गया था। वहीं कुछ इतिहासकारों के अनुसार युद्ध जीतने के बाद भी पृथ्वीराज ने गोरी को जिंदा छोड़ दिया था।
हालांकि, 1192 में गोरी तुर्की घुड़सवार सेना तीरंदाजी सैनिकों के साथ लौट आई और तराइन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया। इसके बाद गोरी ने सिरसा में पृथ्वीराज को पकड़ लिया और उसकी हत्या कर दी।
पृथ्वीराजरासो पुस्तक में क्या लिखा है?
पृथ्वीराज चौहान को अंतिम हिंदू सम्राट माना जाता है। चंदबरदाई की ब्रजभाषा में लिखा गया है इस कविता में, पृथ्वीराजरासो ने 12वीं सदी के राजा पृथ्वीराज चौहान को एक निडर और कुशल योद्धा बताया है। चंदबरदाई अपनी कविता के अंत में लिखते हैं कि पृथ्वीराज चौहान को 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई में मोहम्मद गोरी से पराजित होने के बाद पकड़ लिया गया था।
चौहान को फिर गजनी ले जाया गया, जो अब अफगानिस्तान है। यहां पृथ्वीराज चौहान को हिरासत में लिया गया। कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान तीर चलाने में सक्षम थे। मोहम्मद गोरी तब पृथ्वीराज को अपने तीरंदाजी कौशल दिखाने के लिए चुनौती देता है।
इस बीच मोहम्मद गोरी एक ऊंचे स्थान पर बैठा था। चौहान और उनके शाही कवि चांदबरदाई उनके साथ जमीन पर बैठे थे। घंटी 25 गज की ऊंचाई पर लटकी हुई थी। चौहान घंटी को चिह्नित करना चाहते थे। बाएँ और दाएँ गिनकर कवि अपने सम्राट पृथ्वीराज चौहान को अपनी कविता “चार बमस चौबिस गज अंगुल अष्ट प्रमाण ता ऊपर सुल्तान है मत छोड़ो चौहान” में कहाँ और कितना ऊँचा बैठा है, इसकी जानकारी देता है।
इसके बाद चौहान ने दिमाग में हिसाब लगाया और घंटी बजते ही चौहान ने सीधे मोहम्मद गौरी पर निशाना साधा. तीर लगते ही गोरी सिंहासन से नीचे गिर गया और उसकी मृत्यु हो गई। गोरी की सेना ने पृथ्वीराज और चंदबरदाई को मारने से पहले, उन दोनों ने एक दूसरे के सीने में छुरा घोंपकर वीरगति को प्राप्त किया।
पृथ्वीराज चोहान और मोहम्मद घोरी का अलग से विचार :
पृथ्वीराज चोहान और मुह्हमद गोरी के बीच संघर्ष :
यह सच है कि पृथ्वीराज चौहान यदि गज़नी के मोहम्मद ग़ौरी की जान नहीं बख्शते और ग़ौरी के लिए कन्नौज नरेश जयचंद पलक-पावड़े न बिछाता, तो शायद भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास कुछ और होता। न ग़ौरी यहां पैर जमा पाता, न मुस्लिम राज की नींव पड़ती। पृथ्वीराज के बाद अगले तीन सौ वर्षों तक इस्लामी शासन का मुक़ाबला करने वाला कोई नहीं था। सद्गुणों के अतिरेक और अपनों से ही लड़ने के लिए विदेशी आक्रांताओं का साथ देने की ऐतिहासिक भूलों ने कोई हज़ार साल तक गुलामी के दंश झेलने के लिए हमें विवश कर दिया।
भारत में अक्सर कहानियों में ही इतिहास खोजना पड़ता है। इसलिए पृथ्वीराज की कहानी के लिए स्वदेशी अर्ध-पौराणिक साहित्य, जैन और मुस्लिम स्रोतों पर ही अधिक निर्भर रहना पड़ता है। इसी क्रम में जयानक का ‘पृथ्वीराज विजय’, जैन विद्वान मेरूतुंग का ‘प्रबंध चिंतामणि’, पृथ्वीराज के दोस्त और राजकवि चंद बरदाई का ‘पृथ्वीराज रासो’, जैन मुनि नयनचंद्र सूरि का ‘हम्मीर काव्य’ जैसे स्वदेशी साहित्य स्रोत हैं। इसी तरह इस्लामी स्रोतों में हसन निज़ामी का ‘ताज-उल-मासिर’, यूफी का ‘तबकात-ए-नासिरी’ और फरिश्ता का ‘तारिख-ए-फिरिश्ता’ जैसे फारसी ग्रंथ हैं। पृथ्वीराज के शासन के शिलालेख बहुत कम मिलते हैं। ऐसा कहीं उल्लेख नहीं कि पृथ्वीराज ने ख़ुद शिलालेख लगवाएं हों।
स्वदेशी स्रोतों में कहा गया है कि पृथ्वीराज चौहान ने 1186 से 1191 के दौरान मोहम्मद ग़ौरी को कई बार पराजित किया। कितनी बार, तो हम्मीर महाकाव्य के अनुसार सात बार, पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार आठ बार, पृथ्वीराज रासो में लिखा है कि 21 बार और प्रबंध चिंतामणि के मुताबिक 23 बार। वहीं, मुस्लिम स्रोत केवल दो लड़ाइयों का ज़िक्र करते हैं, तराइन का पहला युद्ध और तराइन का दूसरा युद्ध। तराइन इलाक़ा दिल्ली से कोई 110 किलोमीटर दूर वर्तमान हरियाणा राज्य में पड़ता है। तराइन के क़िले के नीचे वाले मैदान में यह युद्ध हुआ। 1191 में हुए तराइन के पहले युद्ध में ग़ौरी को हार मिली। कहते हैं कि एक सिपाही ने अधमरी हालत में उसे घोड़े पर चढ़ाया और युद्ध के मैदान से भाग निकला। ग़ौरी की सेना भी भागने लगी। लेकिन, पृथ्वीराज ने भागती सेना का पीछा नहीं किया। यही उसकी ऐतिहासिक भूल बताई जाती है। इसके एक साल बाद ग़ौरी भारी फौज लेकर फिर आया। साल 1192 में हुए तराइन के इस दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज हार गया।
चंद बरदाई ने अपने वीर रस के वृहद महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ में इस युद्ध का वर्णन किया है। संदर्भ संयोगिता प्रसंग का है। पृथ्वीराज इतने विलासमग्न हो गए कि छह माह तक संयोगिता के आवास से बाहर ही नहीं निकला। तब तक ग़ौरी की सेना आगे बढ़ रही थी। राजगुरु चिंतामग्न थे। वह चंद बरदाई के साथ संयोगिता के आवास पर पहुंचे और दासी के हाथों संदेश-पत्र भेजा, ‘ग़ोरी रत्त तुअ ध्ररा, तू गोरी अनुरत्त!’ यानी हमलावर ग़ौरी आपकी धरती पर आ चुका है और आप प्रणय-विलास में ही उलझे हुए हैं। संदेश पढ़ते ही पृथ्वीराज की विलास-निद्रा भंग हुई और वह युद्ध के लिए निकल पड़े।
इससे एक बात साफ़ है कि सालभर के भीतर ही ग़ौरी आएगा, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी और इसलिए युद्ध की कोई तैयारी नहीं थी। 1191 से लेकर 1192 तक तीन युद्धों का पृथ्वीराज को सामना करना पड़ा। तराइन के प्रथम युद्ध का ज़िक्र किया ही है। उसके कुछ माह बाद ही संयोगिता का स्वयंवर हुआ। संयोगिता कन्नौज नरेश जयचंद की कन्या थी। पृथ्वीराज-जयचंद की दुश्मनी और संयोगिता के हरण की यह अलग ही कहानी है। लेकिन, इसका परिणाम यह है कि कुछ ही महीनों में पृथ्वीराज और जयचंद का युद्ध हुआ। पृथ्वीराज के कई शूर योद्धा मारे गए। थोड़े समय में लगातार दो युद्धों से पृथ्वीराज की सेना में वीर योद्धाओं की कमी हो गई थी। यही नहीं, जयचंद और अन्य हिंदू राजाओं ने पृथ्वीराज से कन्नी काट ली।
हिंदू राजाओं की पृथ्वीराज से विमुखता की पृष्ठभूमि जान लेना ज़रूरी है। पृथ्वीराज चौहान राजा सोमेश्वर और महारानी कर्पूरीदेवी के पुत्र थे। उनके पिता का सन 1177 में निधन हुआ। तब पृथ्वीराज की उम्र थी केवल 11 साल और राजा बन गए। उनकी माता ने प्रशासन संभाला। इसके तीन वर्ष बाद से पृथ्वीराज ने ख़ुद प्रशासन संभालना शुरू किया। कई राजा अब उनके राज्य को हथियाने के मंसूबे करने लगे। इसी चक्कर में नागार्जुन, भदनाक, चन्देल, चालुक्य राजघरानों से उनकी ठन गई। संयोगिता प्रसंग से जयचंद से भी उनकी दुश्मनी हो गई। इन आपसी संघर्षों में जीत पृथ्वीराज की हुई। इससे अन्य राजा अपमानित महसूस करने लगे। शायद इसी कारण ग़ौरी के साथ युद्ध में उत्तर के किसी राजा ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया।
चंद बरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में इस युद्ध, पृथ्वीराज के पकड़े जाने, उन्हें गज़नी ले जाए जाने, प्रताड़ित करने और शब्दबेधी तीर से सुलतान को मार डालने और बाद में पृथ्वीराज और चंद बरदाई, दोनों की आत्महत्याओं का रोंगटे खड़े कर देने वाला वर्णन है। यहां सवाल हो सकता है कि चंद ने जब आत्महत्या कर ली, तो फिर रासो में इस घटना को किसने लिखा? इसका उत्तर यह है कि ग़ौरी जब पृथ्वीराज को गज़नी ले गया, तब उसके पीछे पीछे चंद भी पहुंच गया था। जाने के पहले उसने अपना यह अधूरा काव्यग्रंथ अपने पुत्र जल्हण को सौंप दिया था। रासो में गज़नी की घटनाओं का यह वर्णन जल्हण ने लिखा है। रासो में ज़िक्र है, ‘पुस्तक जल्हण हत्थ दै, चलि गज्जन नृपकाज।’ इससे रासो के समय को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है, क्योंकि उसके कई पाठ मिलते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह 16वीं सदी की रचना है। प्रसिद्ध विद्वान और पुरातत्वविद् व्यूलर को ‘पृथ्वीराज विजय’ नामक संस्कृत काव्य की एक खंडित प्रति मिली थी, जो 12वीं- 13वीं सदी की मानी जाती है। इससे रासो के लेखन काल को लेकर प्रश्नचिह्न उपस्थित हो गया है।
पृथ्वीराज की मृत्यु के बारे में भी भिन्न-भिन्न कहानियां हैं। रासो के अनुसार, चंद बरदाई ने मोहम्मद ग़ौरी को पृथ्वीराज का शब्दबेधी कौशल देखने के लिए मनाया था। कहते हैं कि ग़ौरी ने पृथ्वीराज की आंखें गर्म सलाखों से फोड़ दी थीं। इसलिए वह आश्वस्त था और एक नेत्रहीन का कौशल देखने के लिए तैयार हो गया। इसी दौरान चंद का यह छंद प्रसिद्ध है,
कहानी कहती है कि इसके बाद पृथ्वीराज ने तीर से ग़ौरी को मार गिराया। यह घटना कुछ अनैतिहासिक बन गई है, क्योंकि वह मोहम्मद ग़ौरी की मौत की तारीख से मेल नहीं खाती। इतिहास कहता है कि ग़ौरी की मौत 15 मार्च 1206 को हुई। उसे जाटों की खोखर नामक जमात ने झेलम के तीर पर मार डाला। उसकी क़ब्र भी वहां है। फिर गज़नी में किसकी क़ब्र है? एक अन्य कहानी कहती है कि शब्दबेध के समय किसी कारण से मोहम्मद ग़ौरी दरबार में हाजिर नहीं हो सका था। मोहम्मद ग़ौरी का असली नाम शहाबुद्दीन है। उसका बड़ा भाई गियासुद्दीन तब सुलतान था। छंद में जिस सुलतान का ज़िक्र है, शायद वह गियासुद्दीन है, जिसकी मौत सन 1202 में हुई थी। इस्लामिक सूत्रों में गियासुद्दीन की मौत का कारण नहीं दिया गया है। लेकिन, रासो में जिस घटना का ज़िक्र है, वह सन 1202 की है। इसलिए तारीखों का कुछ मेल बनता है। गियासुद्दीन के बाद शहाबुद्दीन सुलतान बना और आगे छह वर्ष तक जीवित रहा।
जैन सूत्रों के अनुसार, युद्ध में ग़ौरी ने पृथ्वीराज को कैद कर लिया और बाद में हत्या करवा दी।
विरुद्धविधिविध्वंस में कहा गया है कि युद्ध स्थल पर ही पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई। चौदहवीं सदी के जैन विद्वान मेरूतुंग ने अपने ग्रंथ ‘प्रबंध चिंतामणि’ में कहा है कि चौहान के संग्रहालय में मुस्लिम विरोधी पेंटिग देखकर ग़ौरी क्रुद्ध हो गया और पृथ्वीराज को मरवा दिया। ‘पृथ्वीराज प्रबंध’ में कहा गया है कि बंदी बनाने के बाद पृथ्वीराज को अजयमेरू यानी वर्तमान अजमेर में लाया गया। अजयमेरू पृथ्वीराज की राजधानी थी। ग़ौरी ने पृथ्वीराज के कमरे के सामने ही अपना सिंहासन लगा रखा था। कहानी कहती है कि पृथ्वीराज ग़ौरी से बदला लेना चाहते थे, इसलिए अपने एक मंत्री प्रताप सिंह से तीर-धनुष लाकर देने के लिए कहा। प्रताप सिंह ने धनुष्यकोडी तो ला दिया, लेकिन इसकी सूचना गौरी को भी दे दी यानी प्रताप सिंह ने धोखा दे दिया। साजिश का पता चलते ही ग़ौरी ने एक गड्ढा खुदवाकर उसमें पृथ्वीराज को फिंकवा दिया। लोगों ने आते-जाते पत्थर मारकर पृथ्वीराज की हत्या कर दी। जैन मुनि नयन सूरी के ‘हम्मीरा’ काव्य में कहा गया है कि पराजय के बाद पृथ्वीराज ने खाना-पीना छोड़ दिया था और इसी से उनकी मौत हो गई। इस्लामी सूत्र कहते हैं कि ग़ौरी ने कैद करने के तुरंत बाद पृथ्वीराज को मरवा डाला।
इन कहानियों से एक बात साफ़ है कि ग़ौरी की कैद में रहते ही पृथ्वीराज की मौत हो गई। गज़नी में पृथ्वीराज की समाधि के पास ही सुलतान गियासुद्दीन की क़ब्र होना रासो की कहानी का आधार हो सकता है। चूंकि शहाबुद्दीन की मौत 1206 में झेलम के तीर पर हुई थी, इसलिए मान लेते हैं कि गज़नी की कब्र शहाबुद्दीन की नहीं, गियासुद्दीन की होगी। अफगानिस्तान में जब तालिबान की सत्ता थी, तब 2005 में कहते हैं कि तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह को तालिबानी अधिकारियों ने पृथ्वीराज की समाधि गज़नी में होने की बात बताई थी। फूलन देवी हत्याकांड के अभियुक्त शेर सिंह राणा ने भी दावा किया था कि तिहाड़ जेल से भागकर वह अफगानिस्तान पहुंच गया था और वहां से पृथ्वीराज की समाधि की मिट्टी और अस्थियां ले आया है। इस कहानी की सच्चाई संदिग्ध है।